Sunday, April 7, 2024

मनोरंजन की दुनिया में अपराध बिकाऊ मसाला!

- हेमंत पाल

      जिस तरह दूसरे बाजार हैं, उसी तरह मनोरंजन का भी एक बड़ा बाजार है। जब से छोटे परदे की अहमियत बढ़ी है, ये बाजार और ज्यादा फल-फूल गया। इसी बाजार का एक प्रमुख आइटम है 'अपराध।' समाज में घटने वाली सामान्य आपराधिक घटनाओं को सनसनी बनाकर पेश करने में छोटे परदे को महारत हासिल कर ली है! जब टीवी पर ख़बरों की दुनिया का विस्तार हुआ, तब अपराध से जुडी ख़बरों को इतनी ज्यादा अहमियत नहीं थी! लेकिन, धीरे-धीरे जब अपराध की ख़बरें बिकाऊ माल लगने लगी, तो इन पर कार्यक्रम बनने लगे! ख़बरों में भी हिंसा वाली घटनाओं का हिस्सा अलग दिखाया जाने लगा! जब चैनल वालों का इस पर भी मन नहीं भरा तो अपराधिक ख़बरों को नए कलेवर में स्टोरी बनाकर पेश किया जाने लगा! जुर्म, सनसनी, डायल 100, क्राइम रिपोर्टर, क्रिमिनल, दास्ताने-जुर्म और एसीपी अर्जुन जैसे कई कार्यक्रम न्यूज़ चैनलों पर आने लगे।
      ऐसा भी समय आया भी था, जब रिमोट पर किसी भी खबरिया चैनल का बटन दबाओ देखने को 'क्राइम न्यूज़' ही मिलती थी! जब इसी छोटे परदे और मोबाइल स्क्रीन पर 'ओटीटी' आया तो इस पर अपराध ही सबसे ज्यादा दिखाया जाने लगा और उसके दर्शक बढे। आज ओटीटी पर सबसे ज्यादा लोकप्रिय सीरीजों में अपराध से जुड़ी कथाएं ही हैं। वास्तव में तो जब से ओटीटी आया, तब से अपराध आधारित वेब सीरीज की बाढ़ सी आ गई। बड़े परदे के बड़े फ़िल्मकार भी कोई न कोई अपराध कथा लेकर ओटीटी पर हाजिर दिखाई देते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि अच्छी अपराध कथाएं अपनी स्टोरी लाइन की वजह से देखने वाले को हिलने नहीं देती। एक एपिसोड देखने का टाइम निकालने वाले दर्शक भी स्टोरी की रोचकता को देखकर आगे के एपिसोड देखने का लोभ छोड़ नहीं पाते और उलझे रहते हैं। सस्पेंस और ट्विस्ट एंड टर्न एलिमेंट्स वाले अपराध वाले शो के सबसे ज्यादा पॉपुलर होने का कारण यही है, कि उनमें दर्शकों को बांधने की क्षमता होती है। ओटीटी के लगभग सभी प्लेटफॉर्म पर अपराधों से जुड़ी वेब सीरीज की भरमार है।
     सबसे ज्यादा पसंद की जाने वाली अपराध कथाओं में 'पाताल लोक' मानी जाती है, जो एक खूंखार अपराधी की कहानी है। इस क्राइम और सस्पेंस ड्रामा सीरीज में एक अलग ही लेवल का अपराध दिखाया गया। कहानी का मुख्य पात्र हथौड़ा त्यागी नाम का एक बदमाश होता है, जो लोगों को हथौड़े से मारने के लिए जाना जाता है। वहीं, दूसरी ओर जयदीप अहलावत इंस्पेक्टर हाथी राम की भूमिका में है। हथौड़ा त्यागी के किरदार में एक्टर अभिषेक बनर्जी की एक्टिंग देखने वाले को भी भयभीत कर देती है। ऐसी ही एक वेब सीरीज है 'मिर्जापुर' जिसने ओटीटी के दर्शकों की संख्या बढ़ाई थी। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल क्षेत्र के जघन्य अपराधों को दर्शाती ये सीरीज अद्भुत साबित हुई। अब तक इसके दो सीजन 'मिर्जापुर' और 'मिर्जापुर-2' आ गए। अगले सीजन का दर्शकों इंतजार है। यह सीरीज पूर्वांचल के बाहुबली अखंडानंद त्रिपाठी और दो नए जांबाज लड़कों गुड्डू और बबलू की कहानी है।  ऐसी ही एक अपराध सीरीज 'रक्तांचल' है जिसकी कहानी अपराध और राजनीति के इर्द-गिर्द घूमती है। यह वेब सीरीज उत्तर प्रदेश में 90 के दशक में चल रही राजनीतिक और आपराधिक हलचल को दर्शाती है। रक्तांचल एक ऐसे लड़के की कहानी है जो अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए अपराध की दुनिया में कदम रखता है। अपराध की दुनिया में वह इतना आगे बढ़ जाता है कि फिर उसका वापस आना संभव नहीं होता। वह अपनों से भी कई बार ठगा जाता है। उसका सबसे बड़ा दुश्मन उसे मारने के लिए पूरी ताकत लगा देता है। लेकिन, वह एक बार फिर वापसी कर उसे कड़ी टक्कर देता है। सीरीज में यह भी दिखाया गया है कि किस तरह अपराध और सियासत की सांठगांठ चलती है। सीरीज के दो सीजन आ चुके हैं।
      बिहार के राजनीतिक और आपराधिक पृष्ठभूमि को दर्शाती वेब सीरीज 'रंगबाज' में सियासत और क्राइम का गठजोड़ दिखाया गया है। बताया गया कि किस तरह एक बाहुबली के आगे पूरा सिस्टम चरमरा जाता है। वह कई हत्याओं गुनाहों में शामिल है। लेकिन, उसके खिलाफ न कोई गवाही देता है और न कोई सबूत मिलता है। बताया जाता है कि ये सीरीज बिहार की राजनीति और अपराध की सच्ची घटनाओं से प्रेरित है। ओटीटी पर सिर्फ अपराध ही नहीं बिकता, इसकी आड़ में पुलिस की सक्रियता भी दर्शकों की पसंद है। 'दिल्ली क्राइम' के दो सीजन पसंद किए जाने का कारण यही है, कि इसमें अपराध के साथ पुलिस को भी उसी तरह सक्रिय बताया गया। शेफाली शाह, रसिका दुग्गल और राजेश तैलंग की इस वेब सीरीज ने दुनियाभर में काफी लोकप्रियता हासिल की। पहले सीजन में ‘निर्भया रेप केस’ जैसी जघन्य अपराध की कहानी दिखाई गई, तो सीजन 2 में एक और थ्रिलिंग क्राइम स्टोरी को दिखाया गया. जिसने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। 'सीजन-2' में 2013 के कच्छा-बनियान गिरोह की रियल लाइफ घटना बयां की गई थी जो बुजुर्गों को निशाना बनाते थे और उन्हें बेरहमी से मार डालते थे। एक वेब सीरीज 'रुद्र: द एज ऑफ डार्कनेस' से एक्टर अजय देवगन ने ओटीटी डेब्यू किया था। ये सीरीज भी काफी पसंद की गई। ये शो ब्रिटिश सीरीज लूथर की रीमेक है और 2022 में रिलीज हुए सबसे अच्छे क्राइम शो में से एक रही। मुंबई पुलिस की स्पेशल क्राइम यूनिट पर आधारित यह शो डीसीपी रुद्रवीर सिंह के इर्द-गिर्द घूमता है, जिन्हें जटिल मामलों को सुलझाने के लिए जाना जाता है।    
      इससे पहले यही दौर मनोरंजन के टीवी चैनलों पर था। सोनी-टीवी पर 'सीआईडी' सीरियल 19 साल तक चला। ये शो इस चैनल के सबसे लोकप्रिय शो में से एक रहा। इसी चैनल पर 'क्राइम पेट्रोल' भी समाज में घटे अपराधों के नाट्य रूपांतरण वाला शो रहा, जिसे दर्शकों काफी सराहा। इन शो की टीआरपी अन्य शो से कहीं बेहतर देखी गई। वास्तव में इस तरह के टीवी शो की शुरुआत 1997 में सुहैब इलियासी ने की थी! वे सबसे पहले 'इंडियाज मोस्ट वांटेड' शो लेकर आए। उन्हें टीवी पर ऐसा क्राइम शो बनाने की प्रेरणा लंदन के चैनल-फोर पर दिखाए जाने वाले शो से मिली थी। भारतीय दर्शकों में ये टीवी शो बेहद लोकप्रिय हुआ था। 'इंडियाज मोस्ट वांटेड' का हर एपिसोड किसी एक फरार 'मोस्ट वांटेड' अपराधी पर होता था! अपराधी की वास्तविक तस्वीर के साथ उस कारनामे की कहानी को नाट्य रूपांतरण बनाकर दिखाया जाता था! तब इस शो की लोकप्रियता का आलम ये था, कि कई बड़े फरार अपराधी दर्शकों की मदद से दबोच लिए गए! यही टीवी शो बाद में 'फ्यूजिटिव मोस्ट वांटेड' नाम से 'दूरदर्शन' के परदे पर भी दिखाया गया। धीरे-धीरे छोटे परदे के ये क्राइम शो इतने लोकप्रिय हो गए कि इनका एक अलग दर्शक वर्ग तैयार हो गया! ये क्राइम शो हॉरर मूवी जैसा कथा संसार रचते थे। इन शो को देखने का जूनून कुछ वैसा ही था जैसा कभी अपराध पत्रिकाएं 'मनोहर कहानियां' और 'सत्यकथा' पढ़कर लोग पूरा करते थे। जब अन्य मनोरंजन चैनलों पर सास, बहू मार्का सीरियलों की धूम थी, तब 'सोनी-टीवी' पर 'सीआईडी' ने अपनी धाक जमाई! मनगढ़ंत अपराध कथाओं की गुत्थी को नाटकीय तरीके से सुलझाने वाली एससीपी प्रद्युम्न की टीम को इतना पसंद किया गया कि ये सीरियल 19 साल तक चलता रहा। 'सोनी' के 'क्राइम पेट्रोल' में भी अपराधों की चीरफाड़ की जाती है, ताकि दर्शक अपराधी की मानसिक स्थिति को भी समझ सकें!
      सवाल उठता है कि क्या अपराधियों को ग्लैमराइज तरीके से पेश किया जाना जरूरी है? जब लोग टीवी पर समाज में घटने वाले अपराध को सिर्फ खबर की तरह देखना चाहते हैं, तो उसे बढ़ा-चढ़ाकर क्यों दिखाया जाता है? ख़बरों में अपराध, मनोरंजन में अपराध के बाद फिर अपराधों का नाट्य रूपांतरण! मनोरंजन चैनलों पर तो इस तरह के शो बार-बार रिपीट किए जाते हैं! दर्शाया ये जाता है कि लोग इस तरह की ख़बरों से सीख लेकर सजग रहें! जबकि, वास्तव में ऐसा होता कहां है? बल्कि, इस तरह के शो से अपराधिक लोगों ने जरूर सीख लेना शुरू कर दी! वे पुलिस कार्रवाई को भी समझने लगे और क़ानूनी दांव पेंचों को भी! इससे ये बात भी साबित हो गई कि अपराध सबसे ज्यादा बिकने वाला विषय है! फिर उसे अखबारों में अपराध कथाओं की तरह पेश किया जाए! पत्रिकाओं में सत्यकथा बनाकर या फिर टीवी की ख़बरों में क्राइम रिपोर्ट बनाकर! पर सबसे ज्यादा घातक है अपराध का मनोरंजन जाना! वही आज सच बनकर सामने भी आ रहा है!
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Sunday, March 31, 2024

परदे से गजल का गुलशन उजड़ने क्यों लगा

- हेमंत पाल

    हिंदी फिल्मों का सौ साल का इतिहास काफी गौरवशाली रहा है। इसमें गीत-संगीत का भी अपना अलग योगदान रहा। खय्याम और मदन मोहन जैसे संगीतकारों ने संगीत को शायरना बनाया और अमर संगीत दिया। लेकिन, आज की फिल्मों के संगीत में गजल, नज्म और शायरी कम हो गई। जबकि, गजल हमेशा ही संगीत का अहम हिस्सा रही। पहले की शायरी पर अरबी का प्रभाव ज्यादा था, पर आज की शायरी की जुबान जुदा है। नए जमाने की शायरी में उर्दू के साथ हिंदी भी है, जो इसे आम लोगों से जोड़ती है। गजल गायकी का अपना अलग ही पारंपरिक रंग है और वहीं उसकी खूबसूरती भी है। यह बात अलग है कि गायकों ने अपनी अलग शैली से गजल को लोकप्रिय बनाया। जगजीत सिंह और पंकज उधास की अपनी शैली थी, उस कमी को पूरा कर पाना मुश्किल है।
     सिनेमा में संगीत कई रूपों में सुनाई देता रहा। दर्शकों ने गीतों से लगाकर शास्त्रीय संगीत तक और कव्वाली से गजल तक को परदे पर अवतरित होते देखा। इनमें दर्शकों ने सबसे ज्यादा सुना गीतों को, जो कभी रोमांस तो कभी किसी और रूप में सुनाई दिए। लेकिन, संगीत का सबसे खूबसूरत रूप गजल धीरे-धीरे बिल्कुल विलुप्त हो गया। सिनेमा में आए बदलाव ने गजल को खो सा दिया। एक दशक पहले जगजीत सिंह के दुनिया से चले जाने के बाद तो जैसे गजल को भुला ही दिया और अब पंकज उधास के बाद तो गजल के फिर परदे पर आने की संभावना ख़त्म हो गई।
     हिंदी सिनेमा की पहली बोलती फिल्म 'आलम आरा' (1931) के बाद से ही गजल फिल्म संगीत का आधार बनी। 19वीं से 20वीं शताब्दी के शुरुआती दौर में फ़िल्मी ग़ज़लों की जड़ें उर्दू पारसी थिएटर में भी थी। 1930 से 1960 के दशक तक गजल ही फ़िल्म संगीत की ख़ास शैली रही। बाद में यह दौर घटता गया, लेकिन 1980 के दशक तक चलता रहा। इसके बाद तो फिल्म संगीत में ग़ज़ल हाशिए पर चली गई। खय्याम और मदन मोहन जैसे संगीत निर्देशकों ने 1960 और 1970 के दशक में कई फिल्मी गजलों की रचना की। परंतु, उनकी परंपरा को दूसरे संगीतकारों ने नहीं अपनाया।  कानों से दिल में उतरने वाली गजल मख़मली शब्दों से सजी गीत की वो विधा है, उसने सिनेमा को बरसों तक अपने असर से सराबोर किया। फिल्म संगीत के पन्नों को खंगाला जाए, तो पिछली सदी के चौथे दशक में फिल्मों के लिए पहली ग़ज़ल फिल्म 'दुनिया न माने' के लिए शांता आप्टे ने गाई थीं। 'दिखाई दिए यूं के बेखुद किया, हमें आपसे भी जुदा कर चले!' मीर तकी मीर की ये ग़ज़ल बाद में 'बाजार' (1982) फिल्म में भी सुनाई दी। सोहराब मोदी की फिल्म 'मिर्जा गालिब' में तलत महमूद और सुरैया की गाई गजलों को भी काफी पसंद किया गया। 
      बाद में शकील बदायूंनी, हसरत जयपुरी, मजरुह सुल्तानपुरी, साहिर लुधियानवी, नक्श लायलपुरी, जावेद अख्तर, निदा फाजली, गुलजार, गोपालदास नीरज जैसे कई नामी शायरों और गीतकारों ने फिल्म जगत को बेहतरीन ग़ज़लें दी। लेकिन, ग़ज़ल का जनक मीर तक़ी मीर को माना जाता है। उनकी लिखी कुछ ग़ज़लें फिल्मों में आज भी सुनाई दे जाती हैं। 'बाजार' फिल्म की ग़ज़ल 'दिखाई दिए यूं के बेखुद किया हमें आपसे भी जुदा कर चले' ये ग़ज़ल मीर की ही देन है। खय्याम के संगीत में लता मंगेशकर की आवाज ने इसमें चार चांद लगाए। मीर के साथ ग़ालिब, मोमिन खान, फैज़ अहमद फैज़, साहिर लुधियानवी की ग़ज़लों ने भी हिंदी फ़िल्मों में अपने रंग बिखेरे। जगजीत सिंह की गायी 1999 में आई फिल्म 'सरफ़रोश' की गजल 'इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है' ने दर्शकों को मानो डुबो ही दिया था। निदा फ़ाज़ली की इस ग़ज़ल ने फिल्म के हीरो आमिर खान और हीरोइन सोनाली बेंद्रे के बीच प्रेम की स्वीकृति को जाहिर किया।
     गीतकार और लेखक जावेद अख़्तर की 1982 में आई फ़िल्म 'साथ-साथ' की ग़ज़ल 'जिंदगी धूप तुम घना साया' सुनने वाले के मन को अजीब सा सुकून देती है। 'तुमको देखा तो ये ख्याल आया, जिंदगी धूप तुम घना साया!' ये पंक्ति जब जगजीत सिंह ने अपनी सुरमयी आवाज में ये गजल पिरोई थी, तो प्रेम के अलग ही रूप का अहसास हुआ। इसी फिल्म में 'ये तेरा घर, ये मेरा घर' की पंक्तियों को सुरेश वाडेकर ने अपनी आवाज से अमर कर दिया। यह ग़ज़ल एक छोटे से घर में दो प्रेमियों को उत्साह और उम्मीद से भर देती है। इस ग़ज़ल के बोल अभाव में भी भावनाओं का बोध कराते हैं। 'फिर छिड़ी रात बात फूलों की, रात है या बारात फूलों की तलत अजीज की आवाज में 'बाजार' फिल्म की मखदुम मोहिउद्दीन की रचित यह ग़ज़ल आज भी सुबह सुनाई दे जाए, तो दिनभर जहन में गूंजती है। यह गजल समय के झीने परदे को तार-तार करते हुए रोमांस के ताजा पन का अहसास कराती है।
      फ़िल्मी दुनिया में गुलजार गीतकारों की दुनिया में वो शख्सियत है, जो अपने शब्दों को कहीं भी इस तरह पिरो देते हैं कि लगता है, जैसे वो शब्द उन्हीं पंक्तियों के लिए बने हैं। उन्होंने अमीर खुसरो की गजल से प्रेरित होकर 1985 में आई फिल्म 'गुलामी' के लिए एक गाना लिखा था, जो आज भी उतना ही पसंद किया जाता है। गुलजार ने इस गजल की शुरुआती लाइनों के भाव को अपने गाने ‘ज़े-हाल-ए मिस्कीं मकुन बरंजिश’ में पिरोया था। इस गीत के शुरुआती फ़ारसी में लिखे बोल का अर्थ समझे बिना सुनने वाले इसके भाव को आज भी दिल से महसूस करते हैं। गाने की शुरुआती पंक्तियां ‘जे-हाल-ए-मिस्कीं मकुन बरंजिश, बेहाल-ए-हिज्राँ बेचारा दिल है, सुनाई देती है जिसकी धड़कन, तुम्हारा दिल या हमारा दिल है!’ फारसी और ब्रजभाषा की इस गजल की शुरुआती दो पंक्तियों का अर्थ है ‘बातें बनाकर और नजरें चुराकर मेरी लाचारी की अवहेलना न कर, जुदाई की अगन से जान जा रही है, मुझे अपनी छाती से क्यों नहीं लगा लेते!’ इस गीत में प्रेम की गहराई को खूबसूरती से शब्दों में बयां किया गया। लेकिन, किसी ने इसका गूढ़ अर्थ जानने की कोशिश नहीं की और उसकी जरुरत भी नहीं समझी गई। क्योंकि, जो कानों में रस घोलकर दिल को सुकून दे, वही अच्छा गीत या गजल है।1987 में आई फिल्म 'इजाजत' में गुलजार की लिखी गज़ल 'मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है, सावन के कुछ भीगे भीगे दिन रखे हैं और मेरे एक खत में लिपटी रात पड़ी है!' प्रेम और उसकी समर्पण अनुभूति को चरम सीमा पर ले जाकर मन को गहरा ठहराव देती है। 1982 की फिल्म 'अर्थ' में कैफी आजमी की लिखी गज़ल 'तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या ग़म है जिसको छुपा रहे हो!' जगजीत सिंह की आवाज में प्रेम और उसके भावों को काफी लंबा आयाम देती है। प्रेम में गम और दुख की बयार को इससे बेहतर कोई और गज़ल पेश नहीं कर सकती। 
     हिंदी फिल्मों में गज़लों को बेहतरीन गायकों ने हसीन मुकाम दिया है। जिनमें तलत महमूद, सुरैया, गुलाम अली, जगजीत सिंह, तलत अजीज, नुसरत फतेह अली खान प्रमुख हैं। फिल्मों में हमेशा गज़ल को महफ़िल के माहौल में दर्शाया जाता है और उसका पिक्चराइजेशन भी गम और उसकी संजीदगी को आधार बनाकर किया जाता है। गहरी सोच के साथ ऐसी पेशगी गजलों का मन में दूर तक असर करती है। बहुत ही भावुक और प्यार भरे शब्दों के जरिए गायक इसे शब्दों में पिरोते हैं। नयी फिल्मों के गीत-संगीत पर काफी लोग अपनी नाराजगी व्यक्त करते रहते हैं लेकिन नई फिल्मों में भी ग़ज़ल की उपस्थिति एक हद तक लोगों की नाराजगी को दूर करने में कामयाब हो रही है।       हिंदी फिल्मों में गजलों की बात करें और 'पाकीजा' तथा 'उमराव जान' की गजलों का जिक्र न हो, यह संभव नहीं है। इन फिल्मों की गज़लें सदैव जवां रहकर मन को महकाती रहेंगी। 1981 की फिल्म 'उमराव जान' में प्रसिद्ध शायर शहरयार की ग़ज़ल 'दिल चीज है क्या आप मेरी जान लीजिए, बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए!' इस गजल ने मन को एक लंबी सिरहन से भर दिया था। इसका अंतिम अंतरा मन को दुनिया के संघर्षों से लड़ने की असीम शक्ति देता है। इसके अलावा 'उमराव जान' में ही 'इन आँखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं' तथा 'जुस्तजू जिसकी थी, उसको तो न पाया हमने' गजलों ने भी हिंदी फिल्मों में काफी लोकप्रियता हासिल की है। इस शब्द  लोकप्रियता का आलम यह है कि 1964 में 'ग़ज़ल' नाम से एक फिल्म भी बनी। इसका निर्देशन वेद-मदन ने किया और इसमें सुनील दत्त, मीना कुमारी, रहमान और पृथ्वीराज कपूर मुख्य भूमिकाओं में थे। इसमें मदन मोहन का संगीत और साहिर लुधियानवी के गीत हैं। यह फिल्म कई गज़लों के लिए प्रसिद्ध है। मोहम्मद रफ़ी की गायी 'रंग और नूर की बारात' और लता मंगेशकर का गाया 'नगमा-ओ-शेर की सौगात' काफी लोकप्रिय हुई। लेकिन, अब लगता है फिल्म संगीत का वो खुशनुमा दौर समाप्ति की तरफ बढ़ रहा है! 
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Friday, March 29, 2024

परदे पर जब रंग बिखरे तो कुछ जरूर बदला!

- हेमंत पाल

      फ़िल्म इतिहास के पन्नों पर होली प्रसंग के कई मायने हैं। जब कथानक में मस्ती भरा कोई गीत रचना हो, तो होली के रंग बिखेर दिए जाते हैं। नायक और नायिका में प्यार का रंग भरना हो, तो होली को बहाना बनाने में देर नहीं होती। ऐसी भी फ़िल्में कम नहीं, जब नायक और खलनायक की दुश्मनी होली के दिन ही निकली। सामाजिक कुप्रथाओं पर चोट करने के लिए भी होली को कथानक में भरा गया। याद कीजिए राजेश खन्ना और आशा पारेख की फिल्म 'कटी पतंग' का वो दृश्य जब विधवा आशा पारेख पर राजेश खन्ना रंग डालते हैं। श्वेत श्याम फिल्मों के समय में भी होली के गीत दर्शकों को खूब भाते थे। रंग भले नजर न आते हो, पर दर्शकों रंग का एहसास तो होता था। पहली टेक्नीकलर फिल्म 'आन' में भी गाने 'खेलो रंग हमारे संग' ने दर्शकों पर रंग जमाया था। 
     फिल्मों के कथानक का त्योहारों से कुछ ख़ास ही रिश्ता है। ऐसी कई फ़िल्में हैं, जिनमें त्योहारों को आधार बनाकर कथानक रचे गए। ऐसे मामलों में सबसे ज्यादा उपयोग हुआ होली का। इसलिए कि होली ऐसा त्योहार है जिसका प्रसंग आने के बाद कथानक में ट्विस्ट लाना आसान होता है। याद किया जाए तो जिस भी फिल्म में होली दृश्य या गीत दिखाई दिए, उनमें अचानक कहानी में बदलाव दिखाई दिया। इसलिए कहा जा सकता है, कि होली और सिनेमा का रिश्ता बहुत गहरा है। होली भले ही रंगों का त्योहार है, पर ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के जमाने से ये परदे पर छाई रही। फिल्म की कहानी में ट्विस्ट लाने के लिए निर्देशक को जब भी किसी मौके की जरूरत होती है सबसे आसान होता है, किसी त्यौहार का प्रसंग लाकर कहानी का प्लॉट बदला जाए! होली के अलावा ईद ही ऐसा त्यौहार हैं, जिन्हें फिल्म बनाने वालों ने जमकर भुनाया! ये सभी खुशियों वाले त्यौहार हैं, जिनके बहाने दर्शकों को गाना-बजाना दिखाकर कहानी में ट्विस्ट लाया जाता रहा। 'जख्मी' से लगाकर 'शोले' और 'सिलसिला' तक को याद किया जा सकता है, जिनमें होली गीत के बाद एकदम कहानी का ट्रैक बदला था। 
     ऐसी कई फ़िल्में है, जिनके कथानक में होली एक महत्वपूर्ण कड़ी बनी! कभी होली ने प्यार के रिश्ते को मजबूत किया तो कभी होली की हुड़दंग दुश्मनी का कारण बनी! गौर करने वाली बात यह भी कि सिनेमा में जब भी होली दिखाई गई, कथानक में मोड़ जरूर आया! फिल्म इतिहास को टटोला जाए तो संभवतः 1944 में पहली बार अमिय चक्रवर्ती ने दिलीप कुमार के साथ 'ज्वार भाटा' में होली दृश्य फिल्माया था। उसके बाद फिल्मों में होली दिखाने का चलन शुरू हुआ! किसी घटना को अंजाम देने के लिए भी होली को सहारा बनाया जाने लगा। ये श्वेत-श्याम फिल्मों का दौर था। 
    सिनेमा की दुनिया भेड़ चाल पर ज्यादा विश्वास करती है। जब होली दृश्य दर्शकों को लुभाने लगे, तो इन्हें कथानक में शामिल करने की होड़ सी लग गई। 'मदर इंडिया' में शमशाद बेगम का गाया 'होली आई रे कन्हाई' अभी भी सुना और पसंद किया जाता है। वी शांताराम ने अपनी चर्चित फिल्म 'नवरंग' में भी होली गीत 'चल जा रे हट नटखट' रखा जो महिपाल और संध्या पर फिल्माया गया था। 70 के दशक की फिल्मों में होली के बहाने कुछ अच्छे दृश्य फिल्मों में देखने को मिले। राजेश खन्ना पर 'कटी पतंग' में फिल्माया गाना 'आज न छोड़ेंगे हम हमजोली' निर्देशक ने उस सामाजिक बंधन को तोड़ने के लिए रखा था, जिसमें एक विधवा को समाज सभी रंगों से बेदखल कर देता है।  जहां तक होली गीत की बात है तो सबसे पहले जिक्र आता है 1940 में आई फिल्म 'औरत' का गाना। निर्देशक महबूब खान की इस फिल्म में अनिल बिस्वास के संगीतबद्ध गाने 'आज होली खेलेंगे साजन के संग' और 'जमुना तट श्याम खेले होरी' हिंदी सिनेमा के पहले होली गीत माने जाते हैं। बाद में महबूब खान ने इस फिल्म की कहानी को 'मदर इंडिया' नाम से बनाया। इसमें भी होली का सदाबहार गाना 'होली आई रे कन्हाई रंग छलके, बजा दे जरा बांसुरी' था। उसके बाद गीता दत्त के गाए 'जोगन' के गीत 'डारो रे रंग डारो रे रसिया' सुपरहिट होली गीत बना।
      श्वेत श्याम फिल्मों के दौर में भी होली के गाने दर्शकों को भाते थे। भले परदे पर रंग नजर न आते हो, लेकिन इन गीतों का जादू ऐसा होता था कि लोगों को परदे पर रंग बिरंगी होली का ही एहसास होता था। देश में बनी पहली टेक्नीकलर फिल्म 'आन' में दिलीप कुमार की अदाकारी के अलावा इस फिल्म के गाने 'खेलो रंग हमारे संग' ने लोगों पर खूब जादू किया। फिर तो होली के गानों का सिलसिला ही चल निकला। रमेश सिप्पी की फिल्म 'शोले' में धर्मेंद्र और हेमा मालिनी की छेड़छाड़ वाला गाना 'होली के दिन दिल खिल जाते हैं' हर होली पर सुनाई देता है। 70 और 80 के दशक की फिल्मों में होली के गाने खूब बजे। इस दौरान बने सुपरहिट होली गीतों में 'षड्यंत्र' का गाना होली आई रे मस्तानों की टोली, फिल्म 'राजपूत' का गाना भागी रे भागी रे भागी बृज बाला, फिल्म 'नदिया के पार' का गाना 'जोगीजी वाह जोगीजी, फिल्म 'कामचोर' का गाना 'मल दे गुलाल मोहे' और फिल्म 'बागबान' का गाना 'होली खेले रघुवीरा अवध में होली खेले रघुवीरा' कालजयी गीत बने। लेकिन, जो गाना सबसे ज्यादा हिट हुआ वह था फिल्म 'सिलसिला' का अमिताभ की आवाज का गाना 'रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे!' ये गाना हिंदी सिनेमा का सबसे लोकप्रिय होली गीत माना जाता है।
      फिल्मकारों को जब भी मस्ती गीत जरूरत महसूस हुई में कथानक में होली प्रसंग से जुड़ा गीत पिरो दिया गया। होली वैसे तो रंगों का त्यौहार है, पर सिनेमा के शुरूआती समय में जब फ़िल्में श्वेत-श्याम हुआ करती थीं, तब भी होली प्रसंग फिल्माए और पसंद किए गए। देखा जाए तो अभी तक 'होली' नाम से भी एक फिल्में बनी और दूसरी फिल्म 'होली आई रे' नाम से बनी। 'फागुन' शीर्षक से भी दो फिल्में बनी। 1967 में 'भक्त प्रहलाद' फिल्म बनी जिसमें होली का धार्मिक आधार बताया गया था। फ़िल्मी कथानक को जटिल हालात से निकालने या ट्रैक बदलने के लिए भी होली दृश्यों का कई बार इस्तेमाल किया गया। यश चोपड़ा जैसे निर्देशक ने भी अपनी फिल्मों में बार-बार होली दृश्यों का उपयोग किया। 1981 में आई 'सिलसिला' के गीत 'रंग बरसे भीगे चुनर वाली' गीत को उलझन वाली स्थिति से निकालने के लिए ही लिखा गया। इस होली गीत ने ही अमिताभ और रेखा को घुटन से बाहर आने का मौका दिया। 'रंग बरसे ...' गाते हुए अमिताभ भांग के नशे में इतना मस्त हो जाते हैं कि संजीव कुमार और जया भादुड़ी की मौजूदगी को ही भुला देते हैं। इसके बाद तो फिल्म की कहानी ही बदल जाती है। फिल्म के पात्र प्रेम, दाम्पत्य और अविश्वास की जिस गफलत में फंसे थे, इस होली गीत ने उन्हें उस भूल-भुलैया से निकलने का रास्ता भी दिया था। 
   1984 में आई फिल्म 'मशाल' में 'होली आई होली आई देखो होली आई रे' में अनिल कपूर और रति अग्निहोत्री के प्रेम के रंग को निखारा गया। साथ ही दिलीप कुमार और वहीदा रहमान के बीच मौन संवाद पेश किया। ऐसा ही एक दृश्य यश चोपड़ा की ही फिल्म 'डर' में भी था। इसमें शाहरुख खान जूही चावला के प्रेम में जुनूनी खलनायक की भूमिका में रहते हैं। हैं। वे किसी भी कीमत पर उसे पाना चाहते हैं। तनाव के बीच होली प्रसंग शाहरुख को जूही चावला को स्पर्श करने का मौका देता है। साथ ही कहानी को अंजाम तक पहुंचाने का भी अवसर मिलता है। 'मोहब्बतें' में यश चोपड़ा ने 'सोहनी सोहनी अंखियों वाली' से जोड़ियों के बीच होली सीक्वंस फ़िल्माया। राजकुमार संतोषी ने भी 'दामिनी' में होली को कहानी का मुख्य आधार बनाकर दिखाया था। मीनाक्षी शेषाद्रि और सनी देओल की इस फिल्म में तो होली के दिन की एक ऐसी घटना थी जो फिल्म को आगे बढ़ाती है। 
     'शोले' में गब्बर सिंह की डकैतों की गैंग हमले से अनजान गांव वाले होली पर पर झूमते नजर आते हैं। डाकुओं से जय और वीरू का पहली बार सामना भी यहीं होता है! उसके बाद ही गब्बर सिंह को पता चलता है कि ठाकुर ने मुकाबले के लिए जय और वीरू को गांव में बुलाया है। फिल्म 'जख्मी' में सुनील दत्त होली पर डफली बजाते हुए दुश्मनों को चुनौती देते हैं। बासु चटर्जी की फिल्म 'दिल्लगी' में धर्मेन्द्र होली गीत गाते हुए हेमा मालिनी को रिझाते हैं। 'आखिर क्यों' में राजेश खन्ना और स्मिता पाटिल का होली गीत रिश्तों में नई पेचीदगी खड़ी कर देता है। ऐसी बहुत सी फिल्में हैं, जिनमें या तो गीतों के सहारे या फिर किसी भी अच्छी-बुरी घटना को अंजाम देने के लिए होली के दृश्य दिखाए गए। फिल्म 'होली' में आमिर खान को कैंपस में राजनीति के माहौल में होली खेलते दिखाया गया। 'मोहब्बतें' में होस्टल के सभी लड़के अपनी प्रेमिकाओं के साथ गुरूकुल से निकालकर होली मनाने में सफल होते है। इसके अलावा भी कई ऐसी फ़िल्में हैं जिसमें होली दृश्यों के बाद कथानक अचानक बदला! फागुन, मदर इंडिया, वक़्त, जख्मी, मशाल, कटी पतंग, बागबान, दीवाना, मंगल पांडे, आखिर क्यों, दिल्ली हाईट्स जिनमें होली सिर्फ त्यौहार के रूप में नहीं फिल्माया गया, बल्कि कथानक हिस्सा बनी!
    'कोहिनूर' का गीत 'तन रंग लो जी आज मन रंग लो' भी पसंद किया गया था। ‘गोदान’ में भी एक होली गीत फिल्माया गया था। 'आखिर क्यों' का गीत 'सात रंग में खेल रही है दिलवालों की टोली रे' और ‘कामचोर’ के गीत 'मल दे गुलाल मोहे' के जरिए कहानी को आगे बढ़ाया गया। फिल्मों में होली का क्रेज पिछले दशक तक रहा। दीपिका पादुकोण और रणबीर कपूर की फिल्म 'ये जवानी है दीवानी' का गाना 'बलम पिचकारी जो तूने मुझे मारी' खूब हिट हुआ। होली का अल्हड़ अंदाज इस गाने में बरसों बाद दिखाई दिया था। इसके बाद 'वार' में रितिक रोशन और टाइगर श्रॉफ जरूर एक होली गीत में धूम मचाते दिखे थे। लेकिन, फिर  कोई होली का ऐसा होली गीत सुनाई नहीं दिया, जो की जुबान पर चढ़ा हो।
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कबीर बेदी की जिंदगी का फलसफा

- हेमंत पाल 

     बीर बेदी ने अपने करियर में बहुत ज्यादा हिंदी फिल्मों में काम नहीं किया। पर, उन्होंने जो भी फ़िल्में की, उसमें उनके किरदार को भुलाया नहीं जा सकता। वे ऐसे अभिनेता रहे, जिन्हें किसी दायरे में नहीं बांधा जा सकता। उन्होंने डाकू की भूमिका भी की और निर्दयी पति की भी! लेकिन, जो भी किरदार निभाया, वो दर्शकों को हमेशा याद रहा। कबीर बेदी को लोग फिल्मों से ज्यादा उनकी निजी जिंदगी के लिए याद रखते हैं। उन्होंने अपनी बायोग्राफी 'स्टोरीज आई मस्ट टेल : द इमोशनल लाइफ ऑफ द एक्टर' (कही-अनकही) में अपनी जिंदगी से जुड़े कई खुलासे बड़ी बेबाकी से किए और कई रहस्यों पर से परदा उठाया। अपनी बायोग्राफी में उन्होंने निजी जिंदगी से लगाकर अपनी तीन मोहब्बत का भी खुलासा किया। अपनी आत्मकथा में उन्होंने बताया कि कैसे परवीन बाबी से प्यार के बाद उन्होंने पत्नी प्रोतिमा से अपना रिश्ता तोड़ लिया था। यह घटनाक्रम इतने दिलचस्प तरीके से लिखा गया, कि पढ़ने वाला बंधा रह जाता है। उन्होंने इस बात का भी जिक्र किया कि पत्नी प्रोतिमा के साथ शुरू में सब-कुछ ठीक था। लेकिन, फिर रिश्तों में तनाव आने लगा। इसका कारण यह था कि दोनों तरफ से लगाव की कमी थी। कबीर बेदी को यह लिखने में भी संकोच नहीं हुआ कि जब प्रोतिमा को परवीन से उनके संबंधों के बारे में पता चला तो उन्होंने परवीन से अपनी नजदीकी को बढ़ाने में ज्यादा रूचि ली।
        कबीर बेदी फिल्मों में ऐसा नाम हैं, जिनका जिक्र किए बिना फिल्मी हस्तियों की गिनती अधूरी है। वे 1970 के दशक से फिल्मों में एक जगमगाता सितारा रहे। वे ऐसी शख्सियत हैं, जिन्होंने अपने रीयल लाइफ को 'रील लाइफ' की तरह जिया। अनोखे अंदाज के लिए पहचाने जाने वाले कबीर बेदी ने अपनी जिंदगी को किसी बंधन में नहीं बांधा। उन्होंने सिर्फ भारत में ही नहीं, अमेरिका और कई यूरोपीय देशों में भी नाम कमाया है। इटली में भी उनके चाहने वाले कम नहीं रहे। वे ऐसे अभिनेताओं में शामिल रहे, जिन्होंने हॉलीवुड फिल्मों में भी अपनी प्रतिभा दिखाई और शोहरत पायी। उन्होंने फिल्मों, रंगमंच और टेलीविजन की दुनिया में अद्भुत कारनामों के जलवे बिखेरे। अपनी आकर्षक पर्सनैलिटी के कारण वे कई महिलाओं के भी केंद्र में रहे। इसके चलते उनके कई लव-अफेयर भी चर्चित रहे हैं। मॉडलिंग से अपने करियर की शुरुआत करने वाले कबीर बेदी ने अपनी जिंदगी में जो चाहा, वो पाया।
       फ़िल्मी दुनिया के अपने सफर का जिक्र करते हुए कबीर बेदी ने लिखा कि वे 1700 रुपए लेकर मुंबई आए थे। तब उन्हें करियर और भविष्य की ज्यादा समझ नहीं थी। जब काम के लिए कोशिश की, तो सभी ने खलनायक की भूमिका की बात की। क्योंकि, कद-काठी से वे न किसी के भाई लगते थे, न दोस्त और न नायक। सभी डायरेक्टरों का कहना था कि तुम खलनायक के ही लायक हो। कबीर ने लिखा कि प्रोफेशनल लाइफ के अलावा पर्सनल लाइफ में भी मैं खलनायक ही बना रहा। असल जीवन में भी मेरी तीन शादियां हुईं। पहली शादी डांसर प्रोतिमा से हुई। शुरुआत बहुत खुशियों भरी थी, लेकिन यह साथ चार साल से ज्यादा नहीं चला। दूसरी शादी अमेरिकी मूल की निक्की से हुई और तीसरी शादी परवीन बॉबी से जिससे भी लम्बा साथ नहीं रहा। कबीर का मानना है कि शादी कोई बंधन नहीं, बल्कि जीने का एक बेबाक अंदाज है। कबीर के मुताबिक, मैं शादी के बंधन में बंधकर नहीं रह सका। फिल्मों की तरह निजी जीवन में भी खलनायक की भूमिका में ही जीता रहा। मैं आज भी वैसा ही जीवन जी रहा हूं,जिसका मुझे दुख नहीं।
     कबीर बेदी ने अपने नजरिए के बारे में भी लिखा कि खुद की क्षमता पर से कभी भरोसा नहीं उठने देना चाहिए। सफलता निश्चित रूप से आपके कदम चूमेगी। क्योंकि, अवसर कभी दस्तक नहीं देता, इसे सही समय पर अनुभव करना पड़ता है। विश्वास कमाने की चीज है, इसलिए अजनबी लोगों पर आसानी से विश्वास नहीं किया जाना चाहिए। पहले परखें, विश्वास करें इसके बाद ही आगे बढ़ें। कबीर बेदी ने अपनी इस किताब में जीवन से जुड़ी कई कहानियां साझा की। दिल्ली में पढ़ते थे, तब बीटल्स उनकी मुलाक़ात। फिर अचानक घर और कॉलेज को छोड़कर फिल्मों में एक्टर बनने के लिए मुंबई जाना। विज्ञापन की दुनिया के रोमांच के अलावा विदेश में 'सांदोकान' जैसी इटेलियन फिल्म की सफलता और फिर नाकामयाबी। उन्होंने अपने दार्शनिक इंडियन पिता और इंग्लैंड में जन्मी माँ की दिलचस्प प्रेम कहानी का भी जिक्र किया, जो बौद्ध भिक्षुक थीं। कबीर बेदी ने स़िजो़फ्रेनिया पीड़ित अपने बेटे को बचाने का संघर्ष का भी खुलासा किया।
       कबीर बेदी का आत्मकथ्य 'कही-अनकही' ऐसे साधारण आदमी का असाधारण स्पष्टवादी संस्मरण है, जिसने अपने जीवन की कोई बात नहीं छुपाई। न प्यार की तीन कहानियों की और न करियर की बात। यह दिल्ली के एक मध्यवर्गीय परिवार के युवक की जिंदगी की कहानी है, जिसने करियर की ऊंचाई को भी छुआ और नाकामी भी देखी। दरअसल, ये आदमी के संवरने, बिखरने और फिर अपने दम पर खड़े होने की दास्तान है। इस शख्स ने अपनी इस किताब में बेहद साफगोई से अपने जीवन के हर पन्नों को खोला, इसलिए यह किताब पठनीय दस्तावेज़ बनी। उनकी स्वच्छंदता कभी विवाद, कभी सुर्खी तो कभी दिलचस्पी बनी। कबीर बेदी ने अपनी आत्मकथा में दिल को खोलकर रख दिया। इस किताब में जब वे अपना दिल खोलते हैं, तो कई कहानियाँ निकलती हैं। जब वे दिल्ली में पढ़ते थे, तो बीटल्स के साथ उनकी पहली जादुई मुलाक़ात का भी अकसर जिक्र लेते हैं। अचानक घर, दोस्तों और कॉलेज को छोड़कर मुंबई जाना।
    विज्ञापन की दुनिया में उनके रोमांच भरे पल, विदेश में उनका असाधारण रूप से सफल करियर और अनेक तकलीफ़देह नाकामयाबी। उन्मुक्त प्रतिमा बेदी और चकाचौंध से भरी परवीन बाबी के साथ उनके संबंध, जिसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। इसके कारण कई खराशें रह गई। तीन बार हुए तलाक़ के हादसे के बाद भी उन्हें सुकून हासिल हुआ। क्योंकि, उनकी मान्यताएं बदल गई। उन्होंने अपनी जिंदगी का मकसद बदल लिया। उनकी उथल-पुथल जिंदगी की ये कहानियां हॉलीवुड, बॉलीवुड और यूरोप में रची-बसी हैं। उन्होंने अपने दार्शनिक भारतीय पिता और ब्रिटेन में पैदा हुई अपनी माँ की दिलचस्प प्रेम कहानी भी सुनाई है, जो बहुत आला दर्जे की बौद्ध भिक्षु थीं। और सबसे मार्मिक है अपने सिजोफ्रेनिक बेटे को बचाने का संघर्ष। उनकी आत्मकथा 'कही-अनकही' एक ऐसे व्यक्ति की असाधारण यादें हैं, जिसमें कुछ भी नहीं छुपाया गया, न प्यार में और न किस्सागोई में। यह दिल्ली के एक मध्यवर्गीय लड़के की कहानी है जिसका करियर आज विश्वव्यापी है। साथ ही, यह एक इंसान के बनने, बिगड़ने और फिर से खड़े होने की उतार-चढ़ाव से भरी कहानी भी है।
       कबीर ने बॉन्ड की फिल्म 'ऑक्टोपसी' में मुख्य खलनायक का किरदार निभाया था। इसके साथ ही कबीर ने मशहूर टीवी शो 'ओपेरा' में भी काम किया। कबीर बेदी का करियर और जिंदगी हमेशा ही भारतीय शैली से अलग रही है। उन्होंने अपने जीवन में कई पुरस्कार और उपलब्धियां हासिल की। उनके दुनियाभर में उनके कई प्रशंसक हैं। उन्होंने भारत और यूरोप में फिल्मों और विज्ञापन के लिए कई पुरस्कार जीते हैं। अपनी जीवनी में उन्होंने लिखा कि वे अपने आपको बहुत अकेला महसूस कर रहे थे। वे पूरी तरह से अकेले और खाली पड़ गए थे। तभी उनकी जिंदगी में परवीन बाबी आई जिसने उनके उस खालीपन को भर दिया। कबीर बेदी ने खुलासा किया कि उनकी पत्नी प्रतिमा ने परवीन बाबी और कबीर के रिलेशनशिप को लेकर 1997 में एक पत्रिका में इंटरव्यू दिया था, जिसमें उन्होंने बताया कि कबीर को परवीन के साथ रिलेशनशिप में आने के लिए मैंने ही बढ़ावा दिया था। कहा था कि आप आराम से परवीन के साथ रिश्ते में रह सकते हो। अपनी जिंदगी की सच्चाई को इतनी साफगोई से बखान करना हर किसी के लिए संभव नहीं है। यही कारण है कि वे कबीर बेदी हैं।
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परदे पर जब रंग बिखरे तो कुछ जरूर बदला

- हेमंत पाल

      फ़िल्म इतिहास के पन्नों पर होली प्रसंग के कई मायने हैं। जब कथानक में मस्ती भरा कोई गीत रचना हो, तो होली के रंग बिखेर दिए जाते हैं। नायक और नायिका में प्यार का रंग भरना हो, तो होली को बहाना बनाने में देर नहीं होती। ऐसी भी फ़िल्में कम नहीं, जब नायक और खलनायक की दुश्मनी होली के दिन ही निकली। सामाजिक कुप्रथाओं पर चोट करने के लिए भी होली को कथानक में भरा गया। याद कीजिए राजेश खन्ना और आशा पारेख की फिल्म 'कटी पतंग' का वो दृश्य जब विधवा आशा पारेख पर राजेश खन्ना रंग डालते हैं। श्वेत श्याम फिल्मों के समय में भी होली के गीत दर्शकों को खूब भाते थे। रंग भले नजर न आते हो, पर दर्शकों रंग का एहसास तो होता था। पहली टेक्नीकलर फिल्म 'आन' में भी गाने 'खेलो रंग हमारे संग' ने दर्शकों पर रंग जमाया था। 
    फिल्मों के कथानक का त्योहारों से कुछ ख़ास ही रिश्ता है। ऐसी कई फ़िल्में हैं, जिनमें त्योहारों को आधार बनाकर कथानक रचे गए। ऐसे मामलों में सबसे ज्यादा उपयोग हुआ होली का। इसलिए कि होली ऐसा त्योहार है जिसका प्रसंग आने के बाद कथानक में ट्विस्ट लाना आसान होता है। याद किया जाए तो जिस भी फिल्म में होली दृश्य या गीत दिखाई दिए, उनमें अचानक कहानी में बदलाव दिखाई दिया। इसलिए कहा जा सकता है, कि होली और सिनेमा का रिश्ता बहुत गहरा है। होली भले ही रंगों का त्योहार है, पर ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के जमाने से ये परदे पर छाई रही। फिल्म की कहानी में ट्विस्ट लाने के लिए निर्देशक को जब भी किसी मौके की जरूरत होती है सबसे आसान होता है, किसी त्यौहार का प्रसंग लाकर कहानी का प्लॉट बदला जाए! होली के अलावा ईद ही ऐसा त्यौहार हैं, जिन्हें फिल्म बनाने वालों ने जमकर भुनाया! ये सभी खुशियों वाले त्यौहार हैं, जिनके बहाने दर्शकों को गाना-बजाना दिखाकर कहानी में ट्विस्ट लाया जाता रहा। 'जख्मी' से लगाकर 'शोले' और 'सिलसिला' तक को याद किया जा सकता है, जिनमें होली गीत के बाद एकदम कहानी का ट्रैक बदला था। 
     ऐसी कई फ़िल्में है, जिनके कथानक में होली एक महत्वपूर्ण कड़ी बनी! कभी होली ने प्यार के रिश्ते को मजबूत किया तो कभी होली की हुड़दंग दुश्मनी का कारण बनी! गौर करने वाली बात यह भी कि सिनेमा में जब भी होली दिखाई गई, कथानक में मोड़ जरूर आया! फिल्म इतिहास को टटोला जाए तो संभवतः 1944 में पहली बार अमिय चक्रवर्ती ने दिलीप कुमार के साथ 'ज्वार भाटा' में होली दृश्य फिल्माया था। उसके बाद फिल्मों में होली दिखाने का चलन शुरू हुआ! किसी घटना को अंजाम देने के लिए भी होली को सहारा बनाया जाने लगा। ये श्वेत-श्याम फिल्मों का दौर था। सिनेमा की दुनिया भेड़ चाल पर ज्यादा विश्वास करती है। जब होली दृश्य दर्शकों को लुभाने लगे, तो इन्हें कथानक में शामिल करने की होड़ सी लग गई। 'मदर इंडिया' में शमशाद बेगम का गाया 'होली आई रे कन्हाई' अभी भी सुना और पसंद किया जाता है। वी शांताराम ने अपनी चर्चित फिल्म 'नवरंग' में भी होली गीत 'चल जा रे हट नटखट' रखा जो महिपाल और संध्या पर फिल्माया गया था। 70 के दशक की फिल्मों में होली के बहाने कुछ अच्छे दृश्य फिल्मों में देखने को मिले। राजेश खन्ना पर 'कटी पतंग' में फिल्माया गाना 'आज न छोड़ेंगे हम हमजोली' निर्देशक ने उस सामाजिक बंधन को तोड़ने के लिए रखा था, जिसमें एक विधवा को समाज सभी रंगों से बेदखल कर देता है।
     जहां तक होली गीत की बात है तो सबसे पहले जिक्र आता है 1940 में आई फिल्म 'औरत' का गाना। निर्देशक महबूब खान की इस फिल्म में अनिल बिस्वास के संगीतबद्ध गाने 'आज होली खेलेंगे साजन के संग' और 'जमुना तट श्याम खेले होरी' हिंदी सिनेमा के पहले होली गीत माने जाते हैं। बाद में महबूब खान ने इस फिल्म की कहानी को 'मदर इंडिया' नाम से बनाया। इसमें भी होली का सदाबहार गाना 'होली आई रे कन्हाई रंग छलके, बजा दे जरा बांसुरी' था। उसके बाद गीता दत्त के गाए 'जोगन' के गीत 'डारो रे रंग डारो रे रसिया' सुपरहिट होली गीत बना। श्वेत श्याम फिल्मों के दौर में भी होली के गाने दर्शकों को भाते थे। भले परदे पर रंग नजर न आते हो, लेकिन इन गीतों का जादू ऐसा होता था कि लोगों को परदे पर रंग बिरंगी होली का ही एहसास होता था। देश में बनी पहली टेक्नीकलर फिल्म 'आन' में दिलीप कुमार की अदाकारी के अलावा इस फिल्म के गाने 'खेलो रंग हमारे संग' ने लोगों पर खूब जादू किया। फिर तो होली के गानों का सिलसिला ही चल निकला। 
     रमेश सिप्पी की फिल्म 'शोले' में धर्मेंद्र और हेमा मालिनी की छेड़छाड़ वाला गाना 'होली के दिन दिल खिल जाते हैं' हर होली पर सुनाई देता है। 70 और 80 के दशक की फिल्मों में होली के गाने खूब बजे। इस दौरान बने सुपरहिट होली गीतों में 'षड्यंत्र' का गाना होली आई रे मस्तानों की टोली, फिल्म 'राजपूत' का गाना भागी रे भागी रे भागी बृज बाला, फिल्म 'नदिया के पार' का गाना 'जोगीजी वाह जोगीजी, फिल्म 'कामचोर' का गाना 'मल दे गुलाल मोहे' और फिल्म 'बागबान' का गाना 'होली खेले रघुवीरा अवध में होली खेले रघुवीरा' कालजयी गीत बने। लेकिन, जो गाना सबसे ज्यादा हिट हुआ वह था फिल्म 'सिलसिला' का अमिताभ की आवाज का गाना 'रंग बरसे भीगे चुनर वाली रंग बरसे!' ये गाना हिंदी सिनेमा का सबसे लोकप्रिय होली गीत माना जाता है।
    फिल्मकारों को जब भी मस्ती गीत जरूरत महसूस हुई में कथानक में होली प्रसंग से जुड़ा गीत पिरो दिया गया। होली वैसे तो रंगों का त्यौहार है, पर सिनेमा के शुरूआती समय में जब फ़िल्में श्वेत-श्याम हुआ करती थीं, तब भी होली प्रसंग फिल्माए और पसंद किए गए। देखा जाए तो अभी तक 'होली' नाम से भी एक फिल्में बनी और दूसरी फिल्म 'होली आई रे' नाम से बनी। 'फागुन' शीर्षक से भी दो फिल्में बनी। 1967 में 'भक्त प्रहलाद' फिल्म बनी जिसमें होली का धार्मिक आधार बताया गया था। फ़िल्मी कथानक को जटिल हालात से निकालने या ट्रैक बदलने के लिए भी होली दृश्यों का कई बार इस्तेमाल किया गया। यश चोपड़ा जैसे निर्देशक ने भी अपनी फिल्मों में बार-बार होली दृश्यों का उपयोग किया। 1981 में आई 'सिलसिला' के गीत 'रंग बरसे भीगे चुनर वाली' गीत को उलझन वाली स्थिति से निकालने के लिए ही लिखा गया। इस होली गीत ने ही अमिताभ और रेखा को घुटन से बाहर आने का मौका दिया। 'रंग बरसे ...' गाते हुए अमिताभ भांग के नशे में इतना मस्त हो जाते हैं कि संजीव कुमार और जया भादुड़ी की मौजूदगी को ही भुला देते हैं। इसके बाद तो फिल्म की कहानी ही बदल जाती है। फिल्म के पात्र प्रेम, दाम्पत्य और अविश्वास की जिस गफलत में फंसे थे, इस होली गीत ने उन्हें उस भूल-भुलैया से निकलने का रास्ता भी दिया था। 
    1984 में आई फिल्म 'मशाल' में 'होली आई होली आई देखो होली आई रे' में अनिल कपूर और रति अग्निहोत्री के प्रेम के रंग को निखारा गया। साथ ही दिलीप कुमार और वहीदा रहमान के बीच मौन संवाद पेश किया। ऐसा ही एक दृश्य यश चोपड़ा की ही फिल्म 'डर' में भी था। इसमें शाहरुख खान जूही चावला के प्रेम में जुनूनी खलनायक की भूमिका में रहते हैं। हैं। वे किसी भी कीमत पर उसे पाना चाहते हैं। तनाव के बीच होली प्रसंग शाहरुख को जूही चावला को स्पर्श करने का मौका देता है। साथ ही कहानी को अंजाम तक पहुंचाने का भी अवसर मिलता है। 'मोहब्बतें' में यश चोपड़ा ने 'सोहनी सोहनी अंखियों वाली' से जोड़ियों के बीच होली सीक्वंस फ़िल्माया। राजकुमार संतोषी ने भी 'दामिनी' में होली को कहानी का मुख्य आधार बनाकर दिखाया था। मीनाक्षी शेषाद्रि और सनी देओल की इस फिल्म में तो होली के दिन की एक ऐसी घटना थी जो फिल्म को आगे बढ़ाती है। 
    'शोले' में गब्बर सिंह की डकैतों की गैंग हमले से अनजान गांव वाले होली पर पर झूमते नजर आते हैं। डाकुओं से जय और वीरू का पहली बार सामना भी यहीं होता है! उसके बाद ही गब्बर सिंह को पता चलता है कि ठाकुर ने मुकाबले के लिए जय और वीरू को गांव में बुलाया है। फिल्म 'जख्मी' में सुनील दत्त होली पर डफली बजाते हुए दुश्मनों को चुनौती देते हैं। बासु चटर्जी की फिल्म 'दिल्लगी' में धर्मेन्द्र होली गीत गाते हुए हेमा मालिनी को रिझाते हैं। 'आखिर क्यों' में राजेश खन्ना और स्मिता पाटिल का होली गीत रिश्तों में नई पेचीदगी खड़ी कर देता है। ऐसी बहुत सी फिल्में हैं, जिनमें या तो गीतों के सहारे या फिर किसी भी अच्छी-बुरी घटना को अंजाम देने के लिए होली के दृश्य दिखाए गए।
      फिल्म 'होली' में आमिर खान को कैंपस में राजनीति के माहौल में होली खेलते दिखाया गया। 'मोहब्बतें' में होस्टल के सभी लड़के अपनी प्रेमिकाओं के साथ गुरूकुल से निकालकर होली मनाने में सफल होते है। इसके अलावा भी कई ऐसी फ़िल्में हैं जिसमें होली दृश्यों के बाद कथानक अचानक बदला! फागुन, मदर इंडिया, वक़्त, जख्मी, मशाल, कटी पतंग, बागबान, दीवाना, मंगल पांडे, आखिर क्यों, दिल्ली हाईट्स जिनमें होली सिर्फ त्यौहार के रूप में नहीं फिल्माया गया, बल्कि कथानक हिस्सा बनी! 'कोहिनूर' का गीत 'तन रंग लो जी आज मन रंग लो' भी पसंद किया गया था। ‘गोदान’ में भी एक होली गीत फिल्माया गया था। 'आखिर क्यों' का गीत 'सात रंग में खेल रही है दिलवालों की टोली रे' और ‘कामचोर’ के गीत 'मल दे गुलाल मोहे' के जरिए कहानी को आगे बढ़ाया गया। फिल्मों में होली का क्रेज पिछले दशक तक रहा। दीपिका पादुकोण और रणबीर कपूर की फिल्म 'ये जवानी है दीवानी' का गाना 'बलम पिचकारी जो तूने मुझे मारी' खूब हिट हुआ। होली का अल्हड़ अंदाज इस गाने में बरसों बाद दिखाई दिया था। इसके बाद 'वार' में रितिक रोशन और टाइगर श्रॉफ जरूर एक होली गीत में धूम मचाते दिखे थे। लेकिन, फिर  कोई होली का ऐसा होली गीत सुनाई नहीं दिया, जो की जुबान पर चढ़ा हो।
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Thursday, March 14, 2024

गुरू दत्त एक अबूझ पहेली, जो आज तक हल नहीं हुई!

- हेमंत पाल

    हिंदी सिनेमा के सौ साल से ज्यादा लंबे इतिहास में इतना कुछ घटा है कि सब कुछ याद रखना आसान नहीं। इस दौरान इतनी शख्सियतें दर्शकों के सामने से गुजरी कि सभी का जिक्र करना भी मुश्किल है। सोहराब मोदी, दिलीप कुमार, कमाल अमरोही, देव आनंद, राज कपूर से शुरू किया जाए तो नामों की फेहरिस्त अंतहीन है। लेकिन, फिर भी एक नाम ऐसा है जिसने बहुत कम फ़िल्में बनाई, गिनती की फिल्मों में अभिनय किया, पर वो अपनी छाप छोड़ गया। ये शख्स है गुरू दत्त, जिनका जिक्र किए बिना कभी वर्ल्ड सिनेमा की बात पूरी नहीं होगी। कहा जा सकता है कि अपने समय काल में गुरू दत्त वर्ल्ड सिनेमा के लीडर थे। 1950-60 के दशक में गुरू दत्त ने कागज़ के फूल, प्यासा, साहब बीवी और गुलाम और चौदहवीं का चांद जैसी फिल्में बनाई। इसमें उन्होंने कंटेंट के लेवल पर फिल्मों के क्लासिक पोयटिक एप्रोच को बरकरार रखते हुए रियलिज्म का इस्तेमाल किया। 
      गुरू दत्त अपने आप में एक फिल्म मूवमेंट थे। इसलिए उन्हें किसी और मूवमेंट के ग्रामर पर नहीं कसा जा सकता। गुरू दत्त के बारे में कहा जाता है, कि वे सबसे ज्यादा अपने आप से ही नाराज रहते थे। उनकी इस नाराजगी के कई प्रमाण भी सामने आए। 'कागज के फूल' की असफलता के बाद गुरू दत्त ने कहा भी था 'देखो न मुझे डायरेक्टर बनना था, डायरेक्टर बन गया! एक्टर बनना था एक्टर बन गया! अच्छी पिक्चर बनाना थी, बनाई भी! पैसा है सब कुछ है, पर कुछ भी नहीं रहा।' उनकी जिद के कई किस्से आज भी याद किए जाते हैं। अपनी कालजयी फिल्म 'प्यासा' में वे दिलीप कुमार को बतौर नायक लेने वाले थे। उनकी इस बारे में बात भी हो चुकी थी। लेकिन, किसी बात पर मतभेद हो गए और उन्होंने फिल्म में काम नहीं किया। बाद में गुरू दत्त ने खुद ही इस फिल्म में काम किया। दरअसल, ऐसा कई बार हुआ। मिस्टर एंड मिसेज़ 55, साहेब बीवी और गुलाम और 'आर पार' में भी वे जिस कलाकार को लेना चाहते थे, उन्होंने किसी न किसी कारण इंकार कर दिया था। 'मिस्टर एंड मिसेज़ 55' में सुनील दत्त को लेने वाले थे, पर ऐसा नहीं हो सका। 'साहेब बीवी और गुलाम' के लिए शशि कपूर और विश्वजीत से बात की, लेकिन यहां भी बात टूट गई। अंत में उन्होंने ही वो भूमिका निभाई।
     'साहेब बीवी और गुलाम' फिल्म के दौरान गीता दत्त से उनके संबंध खराब हो गए थे। इसका कारण थी वहीदा रहमान। निजी जिंदगी की परेशानियों के कारण ही गुरू दत्त ने 'साहेब बीवी और गुलाम' का निर्देशन अपने दोस्त अबरार अल्वी से करने को कहा था। इस फिल्म को साहित्यकार बिमल मित्रा ने लिखा था। गुरु दत्त ने इस फिल्म में भी हमेशा की तरह वहीदा रहमान को लेने पर जोर दिया जो उनके और गीता दत्त के रिश्तों में खटास का एक बड़ा कारण थीं। गीता दत्त ने 'साहिब बीबी और गुलाम' को गुरुदत्त और अभिनेत्री वहीदा रहमान की वास्तविक जीवन की कहानी के रूप में माना। 1962 में आई इस फिल्म को अपने समय काल से बहुत आगे माना जाता है। इस फिल्म में व्यभिचार के मुद्दे, विवाह और पितृसत्ता को चुनौती दी गई थी।  गुरु दत्त एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जिसकी रचनात्मक प्रतिभा को बहुत कम उम्र में तब अभिव्यक्ति मिली, जब परिवार कलकत्ता चला गया। अल्मोड़ा में उदय शंकर के नृत्य विद्यालय में उनके कार्यकाल ने उनकी फिल्म बनाने की प्रवृत्ति को आकार दिया। सिनेमा की दुनिया में खुद के लिए एक जगह खोजने के लिए उनका संघर्ष और देव आनंद के साथ उनकी मुलाकात उनकी किस्मत बदलने का एक बहाना था।
      एक निर्देशक के रूप में उनकी सफलता अजीबो-गरीब क्राइम थ्रिलर, जबकि उनका आंतरिक स्व कुछ और सार्थक करने के लिए तरस रहा था, जो उन्होंने प्यासा (1957) के साथ पूरा किया। बॉक्स ऑफिस पर उनकी इस फिल्म की पराजय के साथ उनकी पूरी निराशा भर गई, जिसे अब उनकी  महान रचना माना जाता है। गुरुदत्त रचनात्मक व्यक्ति थे इसमें शक नहीं, उन्होंने अपने सपनों को आकार भी दिया, लेकिन उसके आंतरिक संघर्ष और कशमकश ने इन सपनों को तोड़ने में भी देरी नहीं की। यहां तक कि उन्होंने अपने आलीशान पाली हिल वाले बंगले को भी नहीं बख्शा और तोड़ दिया। 
    अपनी फिल्मों के पारंपरिक सौंदर्य के साथ जमीनी सच्चाई का इस्तेमाल करते हुए गुरू दत्त अपने समकालीनों से मीलों आगे थे। गुरुदत्त ने 1951 में अपनी पहली फिल्म 'बाज़ी' बनाई। यह देवानंद के नवकेतन की फिल्म थी। इस फिल्म में 40 के दशक की हॉलीवुड की फिल्म तकनीक और तेवर को अपनाया गया था। इस फिल्म में गुरुदत्त ने 100 एमएम लेंस के साथ क्लोज-अप शॉट्स का इस्तेमाल किया था। इसके अलावा पहली बार कंटेट के लेवल पर गानों का इस्तेमाल फिल्म की कहानी को आगे बढ़ाने के लिए किया था। तकनीक और कंटेट दोनों के लेवल पर ये भारतीय सिनेमा को गुरुदत्त की बड़ी देन हैं। 'बाज़ी' के बाद गुरुदत्त ने 'जाल' और 'बाज' बनाई। इन दोनों फिल्मों को बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास सफलता नहीं मिली थी। आर-पार (1954), मिस्टर और मिसेज 55, सीआईडी और 'सैलाब' के बाद उन्होंने 1957 में 'प्यासा' बनाई। 
    'प्यासा' के साथ रियलिज्म की राह पर कदम बढ़ाने के साथ ही गुरू दत्त तेजी से डिप्रेशन की तरफ बढ़ रहे थे। 1959 में बनी 'कागज के फूल' गुरू दत्त की इस मनोवृत्ति को व्यक्त करती है। इस फिल्म में सफलता के शिखर तक पहुंचकर गर्त में गिरने वाले डायरेक्टर की भूमिका गुरू दत्त ने खुद निभाई थी। यदि ऑटर थ्योरी पर यकीन करें तो यह फिल्म पूरी तरह से गुरुदत्त की फिल्म थी। इस फिल्म में वे एक फिल्मकार के रूप में सुपर अभिव्यक्ति रहे। 1964 में शराब और नींद की गोलियों का भारी डोज़ लेने के चलते हुई गुरुदत्त की मौत के बाद देवानंद ने कहा था, वो एक युवा व्यक्ति था उसे डिप्रेसिव फिल्में नही बनानी चाहिए थीं। फ्रेंच वेव के अन्य फिल्मकारों की तरह गुरू दत्त सिर्फ फिल्म बनाने के लिए फिल्म निर्माण नहीं कर रहे थे, बल्कि उनकी हर फिल्म शानदार उपन्यास या काव्य की तरह कुछ न कुछ कह रही थी। वे अपनी खास शैली में फिल्म बनाते रहे और उस दौर में वर्ल्ड सिनेमा में जड़ें भी पकड़ रहे ऑटर थ्योरी को भी सत्यापित कर रहे थे। एक फिल्म के पूरा होते ही गुरू दत्त रुकते नहीं, बल्कि दूसरी फिल्म की तैयारी में जुट जाते थे। कुलीन बंगाली परिवार की बेहद प्रतिभाशाली और लोकप्रिय गायिका गीता दत्त के साथ उनके अशांत विवाह से उनके जीवन का ज्यादातर संघर्ष उत्पन्न हुए। गीता के साथ अपने संबंधों को गुरु दत्त ने पाखंड कहकर उजागर भी किया। 
     उन्होंने अपनी फिल्मों में उन्होंने 'कामकाजी महिलाओं' के बारे में बात की और समाज की पुरातन परंपराओं पर सवाल भी उठाए। जबकि, अपने निजी जीवन में वे चाहते थे कि उनकी पत्नी अपने गायन करियर को छोड़ दें और शादी और मातृत्व के पारंपरिक मूल्यों का पालन करें। फिल्म निर्माण कंपनी के मालिक के रूप में गुरु दत्त अपने सभी कर्मचारियों के जीवन और आजीविका के लिए जिम्मेदार थे। फिर भी, उनके रचनात्मक आग्रह का मतलब था कि वह अक्सर यह तय नहीं कर पाते थे कि उन्हें क्या चाहिए। वे मर्जी से फिल्में बनाना शुरू कर देते थे। 
    10 अक्टूबर 1964 को यह अनोखा अभिनेता मृत पाया गया। कहा जाता है कि वह शराब और नींद की गोलियां मिलाकर पीता था। यह उनका तीसरा और आत्महत्या का प्रयास था। 1963 में वहीदा रहमान के साथ उनके संबंध समाप्त हो गए। गीता दत्त को बाद में एक गंभीर नर्वस ब्रेकडाउन का सामना करना पड़ा। 1972 में उनका भी निधन हो गया। एक बार उन्होंने कहा था लाइफ क्या है। दो ही तो चीज है, कामयाबी और फेल्यर। इन दोनों के बीच कुछ भी नहीं है। फ्रेंच वेव की रियलिस्टिक गूंज उनके इन शब्दों में सुनाई देती है, देखो ना, मुझे डायरेक्टर बनना था, बन गया, एक्टर बनना था बन गया, पिक्चर अच्छी बनानी थी, अच्छी बनी। पैसा है सबकुछ है, पर कुछ भी नहीं रहा। हालांकि समय के साथ गुरुदत्त की फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मजबूत पहचान मिली है। टाइम पत्रिका ने प्यासा को 100 सदाबहार फिल्मों की सूची में रखा है। इतनी सारी खासियतों के कारण ही गुरू दत्त आजतक अबूझ पहेली बने हुए हैं। 
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लम्बी फिल्मों का इतिहास भी बहुत लंबा

    देश में सैकड़ों फिल्में हर साल बनती है। हर फिल्म की कोई न कोई ऐसी खासियत होती है, जिस वजह से वे दर्शकों को आकर्षित करती है। कुछ चुनिंदा फिल्मों की खासियत उनकी लंबाई होती है। कुछ बहुत छोटी तो कुछ की लंबाई का रिकॉर्ड तोड़ होती है। कोई फिल्म इतनी छोटी बनी कि उन्हें इंटरवल की जरुरत नहीं पड़ी, तो कुछ फिल्मों में दो-दो इंटरवल करना पड़े। ऐसी फ़िल्में भी बनी जिनकी लंबाई की वजह से सिनेमाघरों ने उन्हें रिलीज करने से ही इंकार कर दिया। आखिर 5 घंटे से ज्यादा लंबी फिल्म को कोई सिनेमाघर कैसे दिखाएं और दर्शक क्यों देखें।
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- हेमंत पाल
     
     फिल्म इतिहास में कुछ फ़िल्में अपनी लंबाई को लेकर खास रही। ऐसी फिल्में दर्शकों का मनोरंजन करने में भी सफल रहीं। ये लंबी जरूर थी, पर इनमें से ज्यादा ने दर्शकों को उबाया नहीं। आज भी दर्शक इन फिल्मों को इनके दिलचस्प कथानक की वजह से याद करते हैं। रणबीर कपूर की हाल ही में आई फिल्म 'एनिमल' को उसकी लम्बाई के कारण याद किया जाता है। लंबे समय से दर्शकों की छोटी फिल्म देखने की आदत है, ऐसे में 'एनिमल' की सफलता के बाद ऐसी फिल्मों का चलन शुरू होगा, ये नहीं कहा जा सकता। फिल्मकार ये हिम्मत तभी कर सकते हैं, जब कहानी में उसे इतना खींचने की गुंजाइश हो। यदि किसी भी फिल्म की लंबाई दो-ढाई घंटे से ज्यादा हो, तो उसकी कहानी में इतना दम होना चाहिए कि वो दर्शकों को बांध सके। क्योंकि, दर्शकों को इतनी देर तक रोककर रखना आसान नहीं होता। लेकिन, ये तभी संभव हो सकता है जब उसका कथानक और निर्देशन जबरदस्त हो। अगर जरा भी कथानक ढीला पड़ा, तो दर्शक बीच फिल्म में कुर्सी छोड़ने में देर नहीं करेगा। लंबी फिल्म उसे कहा जाता है, जो दो-ढाई घंटे की फिल्म के मुकाबले साढ़े तीन या चार घंटे से ज्यादा लंबी होती है। खास बात यह कही जाएगी कि अधिकांश लंबी फिल्में सफल रही हैं।
      हिंदी सिनेमा का इतिहास देखा जाए, तो लंबी फ़िल्में बनाने की शुरुआत 1964 में राज कपूर ने की थी। उनकी फिल्म 'संगम' लंबी होने की वजह से उसमें दो इंटरवल थे। 'संगम' में राज कपूर, राजेंद्र कुमार और वैजयंती माला जैसे कलाकार थे। यह फिल्म एक प्रेम त्रिकोण पर आधारित कथानक था, जो 3 घंटे 58 मिनट लम्बी थी। हिंदी फिल्म इतिहास की ये पहली इतनी लंबी फिल्म थी। ये उस समय की सुपरहिट फिल्मों में थी। दो इंटरवल होने से सिनेमाघरों में इसके दो शो ही चलते थे। 'संगम' की सफलता कुछ ऐसी रही कि ये फिल्म 60 के दशक में ‘मुगल-ए-आज़म’ के बाद सबसे ज्यादा कमाई वाली फिल्मों में गिनी गई। रिचर्ड एटनबरो की महात्मा गांधी के जीवन पर बनी फिल्म 'गांधी' भी 3 घंटे 11 मिनट लंबी फिल्म थी।  
    हर लंबी फिल्म सफल हो, ये जरूरी नहीं। राज कपूर की ही 1970 में आई 'मेरा नाम जोकर' ने उन्हें कर्ज में डुबो दिया था। जबकि, फिल्म की स्टार कास्ट 'संगम' वाले कलाकार भी थे। यह फिल्म राज कपूर का ड्रीम प्रोजेक्ट था, लेकिन उनके सारे सपनों को ध्वस्त कर दिया। 'संगम' से थोड़ी ही ज्यादा लंबी इस 4 घंटे की फिल्म को देश की सबसे लंबी फिल्मों में शामिल किया जाता है। इसमें भी दो इंटरवल होते थे। यह फिल्म एक सर्कस के जोकर 'राजू' की कहानी थी, जिसका दर्द कोई नहीं समझ पाता। इसे राज कपूर की बेहतरीन फिल्मों में गिना जाता है। इस फिल्म के घाटे से उबरने के लिए राज कपूर ने बेटे ऋषि कपूर को लेकर ही 'बॉबी' बनाई थी।
     1975 में रमेश सिप्पी ने 'शोले' बनाई, इसे भी लंबी फिल्मों गिना जाता है। 3 घंटे 20 मिनट की इस फिल्म का शुरूआती कारोबार बेहद ठंडा था। लेकिन, धीरे-धीरे दर्शक जुटने लगे और फिल्म ने 35 करोड़ की कमाई का रिकॉर्ड बनाया। दो दशक तक 'शोले' की इस कमाई का कोई फिल्म रिकॉर्ड नहीं तोड़ पाई थी। 'शोले' से 6 मिनिट लम्बी बनी राजश्री प्रोडक्शन की फिल्म 'हम आपके हैं कौन' ने 135 करोड़ रुपए की कमाई की। सलमान खान, माधुरी दीक्षित और मोहनीश बहल इस फिल्म के कलाकार थे। लंबी फिल्मों का दौर यहीं ख़त्म नहीं हुआ। 2001 में आई आशुतोष गोवारिकर निर्देशित आमिर खान की फिल्म 'लगान' भी 3 घंटे 44 मिनट लंबी थी, जो सुपर हिट साबित हुई। इसके अनोखे पात्रों को आज भी दर्शक याद करते हैं। अपनी अलग सी कहानी के कारण इसे ऑस्कर में भी एंट्री मिली। यह फिल्म ब्रिटिश राज के दौरान एक गांव की कहानी बताती है, जो अंग्रेजों के साथ क्रिकेट का खेल खेलते हैं, ताकि वे करों का भुगतान न कर सकें। 
    युद्ध के कथानक पर जेपी दत्ता के निर्देशन में बनी 'एलओसी कारगिल' 2003 में रिलीज हुई। यह फिल्म हिंदी फिल्म इतिहास की तीसरी सबसे लंबी फिल्मों में एक थी। इसकी लंबाई 4 घंटे 10 मिनट थी। इसका कथानक 1999 के भारत-पाकिस्तान युद्ध पर केंद्रित था, जो कारगिल में लड़ी गई थी। आदित्य चोपड़ा के निर्देशन में आई 'मोहब्बतें' भी 3 घंटे 36 लंबी थी। शाहरुख खान, अमिताभ बच्चन, ऐश्वर्या राय और जुगल हंसराज की यह फिल्म अपने समय में सुपर हिट हुई थी। इस फिल्म को इसलिए भी याद किया जाता है कि इसने अमिताभ बच्चन को बतौर अभिनेता दूसरा जन्म दिया। आशुतोष गोवारिकर की 2008 में आयी फिल्म 'जोधा अकबर' भी लंबी फिल्मों की फेहरिस्त में शामिल है। ऋतिक रोशन और ऐश्वर्या राय की यह फिल्म 3 घंटे 33 मिनट लंबी थी।
      अभी तक की सबसे लंबी फिल्मों में अनुराग कश्यप की 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' को गिना जाता है। 5 घंटे 21 मिनट लंबी इस फिल्म को बना तो लिया गया, पर इसकी लंबाई के कारण कोई सिनेमाघर इसे रिलीज करने को राजी नहीं हुआ। इसके बाद फिल्म को दो हिस्सों में बांटकर रिलीज किया गया। फिल्म का पहला हिस्सा जून 2012 और दूसरा पार्ट अगस्त 2012 में रिलीज किया। तीन पीढ़ियों की कहानी बताती इस फिल्म के दोनों हिस्सों ने बॉक्स ऑफिस पर जमकर धमाल मचाया था। अनिल कपूर, सलमान खान, गोविंदा और प्रियंका चोपड़ा की फिल्म 'सलाम-ए-इश्क' (2007) भी 3 घंटे 36 मिनट लम्बी थी। बड़े सितारों के बावजूद ये फिल्म पसंद चली नहीं। इनके अलावा, तमस, हम साथ-साथ हैं और 'कभी अलविदा न कहना’ भी लंबी फिल्मों में शामिल हैं।
     बरसों बाद 2016 में आई सुशांत सिंह राजपूत की फिल्म 'एम एस धोनी' भी 3 घंटे 5 मिनट लंबी थी। इससे पहले 2008 में 'गजनी' ने 3 घंटे का दायरा तोड़ा। 2000 से अभी तक 23 साल में 20 फिल्में भी ऐसी नहीं हैं, जिनकी लंबाई 3 घंटे से ज्यादा हो। क्योंकि, दर्शकों को तीन घंटे तक बांधकर रखना आसान नहीं होता। जब किसी फिल्म की ज्यादा लंबाई का जिक्र होता है, तो स्वाभाविक रूप से जिज्ञासा होती है कि फिल्म में ऐसा क्या खास है, जो इसकी कहानी कहने में इतना वक़्त लिया गया। ऐसी कई फ़िल्में पौराणिक कहानियों पर भी बनी। जोधा अकबर, लगान, स्वदेस और नायक या ऐसी लंबी फिल्मों को इसी दर्जे में रखा जा सकता है। लंबी फिल्मों का दौर अभी ख़त्म नहीं हुआ। रणबीर कपूर की 'एनिमल' के बाद शाहरुख खान की आने वाली फिल्म 'डंकी' भी लंबी फिल्मों में गिनी जाने वाली फिल्म होगी। 'एनिमल' 3 घंटे 21 मिनट लंबी फिल्म है। जबकि, राजकुमार हिरानी निर्देशित शाहरुख खान 'डंकी' 2 घंटे 40 मिनट की फिल्म बताया गया है। आज दो-सवा दो घंटे से ज्यादा लंबी फिल्म बनने वाली फिल्म को लंबा ही माना जाएगा।
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